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आठवां अध्याय
वायु-प्राणशक्तियोंका अधिपति
ऋग्वेद, मण्डल 4, सूक्त 48
विहि होत्रा अवीता विपो न रायो अर्य: । वायवा चन्द्रेण रथेनु याहि सुतस्य पीतये ।।1।।
(राय: विप) आनंदके अभिव्यंजक और (अर्य: न) कर्मके कर्त्ताकी तरह, तू (अवीता होत्रा) अव्यक्त पड़ी यज्ञिय शक्तियोंको (विहि) व्यक्त कर दे; (वायो) हे वायू, (चन्द्रेण रथेन) सुखमय प्रकाशके अपने रथमें चढ़कर (आयाहि) तु आ, (सुतस्य पीतये) सोमरसको पीनेके लिये ।।1 ।।
निर्युवाणो अशस्तीर्नियुत्वाँ इन्द्रसारथि: । वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ।।2|।
(अशस्ती) सब अनभिव्यक्तियोंको (निर्युवाण:) अपने पाससे दूर हटाता हुआ (नियुत्वान्) अपने 'नियुत' घोड़ों सहित और (इन्द्रसारथि:) इन्द्रको सारथिके रूपमें लेकर [ हे वायु, सुखमय प्रकाशके अपने रथमें चढ़कर तू आ, सोमरसको पीनेके लिये ।] ।।2।।
अनु कृष्णे वसुधिती येमाते विश्वपेशसा । वायवा चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये ।।3।।
वे दोनों (कृष्णे) जो अन्धकारावृत हैं, तो भी (वसुधिती) सब ऐश्वर्योको धारण किये हुए हैं और (विश्वपेशसा) जिनके अन्दर सब रूप हैं (अनुयेमाते) अपने प्रयलमें तेरा अनुसेवन करेंगे । [आ, हे वायु, सुखमय प्रकाशके अपने रथमें चढ़कर तू आ, सोमरसको पीनेके लिये । ] ।।3।।
वहन्तु त्वा मनोयुजो युक्तासो नवतिर्नव । वायवा चन्द्रेण रथेन वाहि सुतस्य पीतये ।।4।।
(युक्तास:) जूते हुए, (मनोयूज:) मन द्वारा जोते जानेवाले (नवति: नव) निन्यानवे [घोड़े] (त्वा वहन्तु) तुझे वहन करें । [हे वायु, सुखमय प्रकाशके अपने स्थपर चढ़कर तू आ, सोमरसको पीनेके लिये । ] ।।4।।
वायो शतं हरीणां युवस्व पोष्याणाम् । उत था वा ते सहस्त्रिणो रथ आ यातु पाजसा ।।5।। ३९२ (वायो) ओ वायु, तू (पोष्याणां हरीणां शतम्) अपने सौ चमकीले घोड़ोंको जो पोष्य हैं जिन्हें बढ़ाया जाना हैं (युवस्य) जोत दे, (उत वा) अथवा (ते सहस्रिण: रथ:) हजार [ घोड़ों ] से युक्त तेरा रथ (पाजसा) अपने अति वेगके साथ (आयातु) आवे |।5।।
भाष्य
वैदिक ऋषियोंके अध्यात्मसम्बन्धी आलोचन प्रायः एक आश्चर्यजनक गूढ़ताको लिये हुए हैं और सबसे अधिक गूढ़ता वहाँ है जहाँ वे अवचेतनके अंदरसे उद्भूत होती हुई मन और प्राणकी सचेतन क्रियाशीलताओं रूपी घटनाका वर्णन करते हैं । यहाँतक कहा जा सकता है कि यह विचार ही उस समृद्ध और सूक्ष्म दर्शन( Philosophy )का सारा आधार है जो ज्ञानकी उस प्राचीन उषामें इन अन्त:प्रेरणायुक्त रहस्यवादियों द्वारा आविष्कृत किया गया था । और ऋषि वामदेवने जैसी सूक्ष्मता तथा उत्तमताके साथ इसे व्यक्त किया हैं उससे बढ़कर कोई और नहीं कर सफा है, यह ऋषि गंभीरतम द्रष्टाओंमेंसे एक है और साथ ही वैदिक युगके मधुरतम गायकोंमेंसे है । उसके सूक्तोंमें से एक, चतुर्थ मंडलका अंतिम सूक्त, सचमुच सबसे अधिक महत्त्वकी कुंजी है जो उस प्रतीकवादको खोलनेके लिये हमें मिली है जिसने यज्ञके रूपकोंके पीछे उन अध्यात्मसंबंधी अनुभवों व बोधोंके वास्तविक रूपोंको छिपा रखा है जिन्हें आर्य पूर्वज इतना अधिक पवित्र मानते थे ।
इस सूक्तमें वामदेव अवचेतनके उस समुद्रका वर्णन करता है जो हमारे जीवन और क्रियाशीलता आदि सबके आधारमें है । उस समुद्रमेंसे संवेद-नात्मक सत्ताकी 'मधुमय' लहर उठती है, जो अपने असिद्ध आनंदके बोझसे अभी मुक्त नहीं हुई है, वह 'घृत' और 'सोम'से भरपूर होकर अर्थात् ऊपरसे आनेवाले विशुद्ध मानसिक चैतन्य तथा प्रकाशमान आनंदसे भरपूर होकर ऊपर उठती है अमरताके आकाशकी ओर । मानसिक चेतनाका 'गुह्य नाम', वह जिह्वा जिससे देवता जगत्का स्वाद लेते हैं, अमरताकी नाभि, वह आनंद ही है जिसका प्रतीक 'सोम' है1। क्योंकि सारी रचना ________________ 1. समुद्रादूर्मि र्मधुमाँ उदारदुपांशुना सममृतत्वमानट् । धृतस्य नाम गुह्यं यदस्ति जिह्वा देवानाममृतस्य नाभि: ।। 4.58.1
समुद्रात्) समुद्रसे (मधुमान्(ऊर्मि:) मधुमय लहर (उदारद) उठती है, (अंशुना) इस सोम द्वारा मनुष्य (अमृतत्वमु_) अमरताको (उप सम् आनट्) पूर्ण रूपसे पा लेता है, (यत्) जो सोम (धृतस्य गुह्यं नाम) निर्मलताका गुह्य नाम है, (देवानां जिह्वा) देवोंकी जिह्वा और (अमृतस्य नाभि:) अमृतकी नाभि (अस्ति) है । ३९३ अवचेतनके अंदर मानो चार सींगोवाले बैल, दिव्य पुरुष, द्वारा उद्वमन कर दी गयी है, जिसके चार सींग हैं असीम सत्ता ( सत्), चेतना (चित्), सुख ( आनंद) और सत्य ( विज्ञान)1 । प्रागैतिहासिक युगकी प्राचीन, रहस्यमयी और प्रतीकात्मक कलाके अवशेषभूत, उच्च कोटिके विसंगत वचनों और विचित्रसे अलंकारोंकी स्मृति करा देनेवाले, बहुत ही प्रबल परस्परविरोधवाले रूपकोंके बीच, वामदेव हमारे सामने पुरुषका वर्णन एक ऐसे नररूप वृषभके रूपकके द्वारा करता है जिसके चार सींग हैं और वे हैं चार दिव्य तत्व; तीन पैर या तीन टाँगें हैं और वे हैं तीन मानवीय तत्त्व-मनोमय सत्ता, प्राणमय सक्रियता और भौतिक, स्थूल तत्त्व; दो सिर हैं, अर्थात् आत्मा और अनात्माकी, या पुरुष और प्रकृतिकी, द्विविध चेतना; सात हाथ हैं, अर्थात् सप्तविध प्राकृतिक क्रियाएँ जो सात लोकोंके अनुसार हुआ करती हैं । ''तीन स्थानोंमें बद्ध--अर्थात् मनमें बद्ध, प्राणशक्तियोंमें बद्ध, शरीरमें बद्ध--वह बैल जोरसे शब्द करता है; वह महान् देव मर्त्योंके अंदर प्रविष्ट है2 ।''
क्योंकि ' 'धृतम्' ' अर्थात् मनका वह निर्मल प्रकाश जो सत्यको प्रतिबिंबित करता हैं, पणियों द्वारा, निम्न ऐन्द्रियिक क्रियाके अधिपतियों द्वारा, छिपा लिया गया है और अवचेतनके अंदर बंद कर दिया गया है; हमारे विचारोंमें, हमारी. इच्छाओंमें, हमारी भौतिक चेतनामें, तीनों स्थानोंमें, प्रकाश और आनंद स्थापित किये हुए है, पर वे हमसे छिपा लिये गये हैं । देवता गौके अंदर, जो ऊपरसे आनेवाले प्रकाशका प्रतीक है, इस 'घृतम्'की शुद्ध धाराओंको पाते हैं3 । ऋषि कहता है कि ये धाराएँ वस्तुओंके हृदयसे, अवचेतनके समुद्रसे, हृद्यात् समुद्रात्, उठती हैं, पर उन्हें शत्रु वृत्रने सैकड़ों बाड़ोंमें घेर लिया है, ताकि वे विवेककी आँखसे बची रहें, उस ज्ञानसे बची रहें जो हमारे अंदर उसे प्रकाशित कर देनेका यत्न करता है जो अप्रकाशित छिपा पड़ा है, और उसे मुक्त कर देना चाहता है जो बंद पड़ा है4 । आशुगामिनी होकर भी घनीभूत, वातमय क्रियासे सीमित, प्राण-शक्ति वायुकी छोटी-छोटी रचनाओंमें परिणत, वातप्रमियः, ये धाराएँ _____________ 1. चुतु:शृङ्कगेऽवभीद् गौर एतत् ।। 4.58.2 2. चत्वारि श्ङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्सासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्यां आविवेश ।। 4.58.3 3. त्रिधा हितं पणिभिर्गुह्ममानं गवि देवासो धृतमन्वविन्दन् ।। 4.58.4 4. एता अर्षन्ति हृद्यात् समुद्रात् शतव्रजा रिपुणा नावचक्षे ।। 4.58.5 ३९४ मार्गमें अवचेतनकी सीमाओंपर चलती हैं । सचेतन हृदय और मनकी अनुभूतियों द्वारा उत्तरोत्तर पवित्रकी जाती हुई ये प्रकृतिकी शक्तियाँ अंतमें दिव्यसंकल्प-रूप अग्निके साथ परिणयके योग्य हो जाती हैं, यह अग्नि इनकी सीमाओंको तोड़ गिराता है और स्वयं इनकी उन लहरोंसे जो अब प्रचुर हो गयी हैं पोषित किया जाता है1 । यह है जीवनकी क्रांति जिससे मर्त्य प्रकृति अमरतामें परिणत होनेकी तैयारी करती है ।
सूक्तकी अंतिम ऋचामें वामदेव सारी सत्ताको इस रूपमें वर्णित करता है कि वह ऊपर दिव्य पुरुषके धाममें, नीचे अवचेतनके समुद्रमें तथा जीवनमें, धामन् ते..... अन्त:समुद्रे हृदि अन्तरायुषि, अधिश्रित है । तो सचेतन मन ही वह प्रणाली है, वह मध्यवर्ती साधन है, जिसके द्वारा ऊर्ध्वसमुद्र और अधःसमुद्रमें, अतिचेतन और अवचेतनमें, दिव्य प्रकाश और प्रकृतिके प्रारंभिक अंधकारमें परस्पर संबंध स्थापित होता हैं ।
वायु है जीवनका देवता । प्राचीन रहस्यवादी ऋषि जीबनतत्त्वको एसा समझते थे कि वह एक महान् शक्ति है जो सारी भौतिक सत्तामें व्यापक है और इसकी सब चेष्टाओंका कारण है । यही विचार पीछे जाकर प्राण, जगद्व्यापक जीवन-श्वासके स्वरूपमें परिणत हो गया । मनुष्यकी सारी जीवनसूचक या वातजन्य चेष्टाएँ प्राणकी परिभाषाके अंदर आ जाती हैं और वे वायुके साम्राज्यक्षेत्रसे संबंधित हैं । तो भी ऋग्वेदमें और देवताओंकी तुलनामें इस महान् देवताके सूक्त थोड़ेसे ही हैं और उन सूक्तोंतकमें जिनमें इसका मुख्य रूपसे आवाहन किया गया है यह प्रायः अकेला नहीं, कितु अन्योंके साथमें आया है, और वह भी इस तरह कि यह उनपर आश्रित है । विशेषतया इसे 'इन्द्र'के साथ जोड़ा गया है और यह भी प्रायः देखनेमें आयगा कि मानो वैदिक ऋषि इससे जो कार्य लेना चाहते थे उसमें इसे (वायुको) उस उच्चतर देवकी (इन्द्रकी) सहायता अपेक्षित होती थी । जब मनुष्यके अंदर जीवन-शक्तियोंकी दिव्यक्रियाका प्रश्न होता है तब वायुका स्थान प्राय: वैदिक अश्व या दधिक्रावाके रूपमें अग्नि ले लेता है ।
यदि हम ऋषियोंके आधारभूत विचारोंको देखें तो वायुकी यह स्थिति ______________ 1. सम्यक् स्त्रवन्ति सरितो न धेना अन्तर्हृ दा मनसा पूयमाना: । 4.58.6 एते अर्षन्त्युर्मयो धृतस्य (मृगा इव क्षिपणोरीषमाणा:) ।। सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमिय: पतयन्ति पह्वा: । घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन् ऊर्मिभि: पिन्वमान: ।। 4.58.7 ३९५ स्पष्ट समझमें आ जाती है । उच्च सत्ताके द्वारा निम्न सत्ताका, दिव्यके द्वारा मर्त्यका, प्रकाशित होना उनका मुख्य विचार था । प्रकाश और शक्ति, गौ और अश्व--ये यज्ञके उद्दिष्ट पदार्थ थे । शक्ति थी आवश्यक शर्त, प्रकाश था मुक्त करानेवाला तत्त्व; और 'इन्द्र' तथा 'सूर्य' उस प्रकाशके मुख्य लानेवाले थे । इसके अतिरिक्त, वह अपेक्षित शक्ति थी दिव्य संकल्प जो सब मानवीय शक्तियोंपर अघिकार कर लेता था और अपने आपको उनमें प्रकट कर देता था; और इस संकल्पका, वातमय प्राणशक्तिपर अघिकार कर लेने और अपने-आपको उसमें प्रकट कर देनेवाले सचेतन बलकी इस शक्तिका, प्रतीक 'वायु'से बढ़कर अग्नि था और विशेषकर दधिक्रावा अग्नि । क्योंकि अग्नि ही तपस्का, अपनेको जगद्व्यापक शक्तिके रूपमें व्यवस्थित करनेवाली दिव्य चेतनाका, अधिपति है, प्राण उसका केवल निम्न सत्तामें रहनेवाला एक प्रतिनिधि है । इसलिये वामदेवके चतुर्थ मण्डलके ५८वें सूक्तमें इन्द्र, सूर्य और अग्नि ही अवचेतनके अंदरसे सचेतन दिव्यताकी महती अभिव्यक्तिको करनेवाले हैं । वात या वायु, प्राण- संबंधी क्रिया, मनकी, उद्भूत होते हुए मनकी केवल एक प्रथम शर्त्त है । और मनुष्यके लिये वायुका महत्त्वपूर्ण पक्ष यही है कि प्राणका मनके साथ मिलन होता है और वह मनके उद्भवमें, विकासमें सहायता प्रदान करता है । यही कारण है कि हम इन्को जो मनका अधिपति है, और वायुको जो प्राणका अधिपति हैं, इकट्ठा जुड़ा हुआ और वायुको कुछ अंशोंमें इन्द्रके आश्रित पाते हैं; यद्यपि मूलत: मन्त्र, विचार-शक्तियाँ, जितनी इन्द्रकी शक्तियाँ प्रतीत होते हैं उतनी ही वायुकी भी, तो भी ऋषियोंके लिये वे स्वयं वायुकी अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण हैं और अपने क्रियाशील स्वरूपमें भी वे वायवीय सेनाओंके इस प्राकृतिक मुखिया (वायु देवता) की अपेक्षा अग्नि रुद्रके साथ कहीं अधिक निकटतासे संबद्ध हैं ।
यह प्रस्तुत सूक्त, चतुर्थ मण्डलका ४८वाँ, उन तीनमें अंतिम है, जिनमें वामदेव सोम-रसको पीनके लिये इन्द्र और वायुका आवाहन कर रहा है । वे सम्मिलित रूपसे प्रकाशमान शक्तिके दो देवताओं, शवसस्फ्ती1के रूपमें पुकारे गये हैं, जैसे कि इससे पूर्वके मण्डलमें आनेवाले एक अन्य सूक्त ( 1.23.3) मे उनका आवाहन विचारके देवता, धियस्पतीके तौरपर किया गया है । इन्द्र है मानसिक शक्तिका देवता, और वायु वातिक या प्राण-संबंधी शक्तिका और उन दोनोंका सम्मिलन विचार तथा क्रियाके लिये ______________ 1. 4.47.3 ३९६ आवश्यक है । उन्हें आमंत्रित किया गया है कि वे एक ही रथमें चढ़कर आवें और मिलकर उस आनंदके रसका पान करें जो अपने साथ देवत्व प्रदान करनेवाली शक्तियाँ लाता है1 । ऐसा कहा गया है कि वायु प्रथम घूंट पीनेका अधिकारी है2, क्योंकि अवश्यमेव विधारक प्राणशक्तियोंको ही सर्वप्रथम दिव्य क्रियाके आनंदको ग्रहण करने योग्य हो जाना चाहिये ।
इस तीसरे सूक्तमें, जिसमें यज्ञका परिणाम वर्णित किया गया है, वायुका आवाहन अकेले किया गया है3, पर इस अवस्थामें भी इन्द्रके साथ उसकी सहचारिता स्पष्टतया दर्शा दी गयी है । जैसे एक अन्य सूक्तमें उषाको कहा गया है वैसे ही इस सूक्तमें वायुसे कहा गया है कि वह सुखमय प्रकाशके रथमें चढकर, अमृतकारक रसको पीनेके लिये आवे4 । रथ प्रतीक है शक्तिकी गतिका, और पहलेसे ही प्रकाशमान प्राणशक्तियोंकी प्रसन्न गतिका ही वायुके रूपमें आवाहन किया गया है । इस प्रकाशमान सुखमय गतिकी दिव्य उपयोगिता प्रथम तीन ऋचाओंमें बतलायी गयी है ।
इस देवको अभिव्यक्ति करनी है--इसे उन यज्ञिय शक्तियोंको जो अबतक अभिव्यक्त नही हुई हैं, अबतक अवचेतनके अंधकारमें छिपी पड़ी हैं, सचेतन क्रियाके प्रकाशमें लाना है--विहि होत्रा अवीता । कर्मकाण्ड-परक व्याख्याके अनुसार इस वाक्यका अनुवाद यह किया जा सकता है, ''उन हवियोंका तू भक्षण कर जो अभक्षित पड़ी हैं'', या 'वी' धातुका दूसरा अर्थ 'पहुँचना' लें तो यह अर्थ कर सकते हैं, ''उन यज्ञिय शक्तियोंके पास तू पहुँच जिनके पास नहीं पहुँचा गया है''; पर प्रतीक-रूपमें इन सब अनुवादोंका निष्कर्ष वही एक आध्यात्मिक अर्थ ही निकलता है । जिन शक्तियों और क्रियाओंको अबतक अवचेतनके अंदरसे बाहर नहीं निकाला गया है उन्हें इन्द्र तथा वायुकी सम्मिलित क्रियाके द्वारा उस गहन गुफाके भीतरसे मुक्त कराना है और फिर उन्हें कर्ममें विनियुक्त कराना है ।
क्योंकि उन्हें प्राणमय मनकी सामान्य क्रियाके प्रति नहीं बुलाया गया है । वायुको इन शक्तियोंको उस प्रकार अभिव्यक्त करना है जैसे कि वह ''कोई परमानंदका अभिव्यञ्जक, कोई आर्य कर्मका कर्ता'' हो, विपो म रायो अर्य: । ये शब्द पर्याप्त रूपसे उन शक्तियोंका स्वरूप दर्शा देते हैं जिन्हें उद् बुद्ध किया जाना है । तो भी यह संभव है कि यह वाक्य _____________ 1. दिविष्टिषु । 2. 4.46.1 3. इससे पहलेके दोनों सूक्तों 46,47 के देवता 'इन्द्रवायू सम्मिलित हैं । 4. वायो आ चन्द्रेण रथेन याहि सुतस्य पीतये । ३९७ गूढ़ रूपसे इन्द्रकी तरफ संकेत करता हो1 और इस प्रकार, जैसा कि बादमें स्पष्ट तौरपर व्यक्त हो गया है, यह दर्शाता हो कि यह आवश्यक है कि वायुकी क्रिया उस अघिक प्रकाशमान देव (इन्द्र) की प्रकाशपूर्ण और अभीप्सायुक्त शक्तिसे नियन्त्रित हो । क्योंकि इन्द्रका ही प्रकाश परम आनंदके प्रकट होनेका रहस्य प्राप्त करा देता है और वह (इन्द्र) इस महान् कार्यमें सर्वप्रथम प्रयास करनेवाला है । देवोमेंसे इन्द्र, अग्नि और सूर्यके लिये ही विशेषत: 'अर्य' शब्द व्यवहृत हुआ है । एक ऐसी गहनार्थताको अपने अंदर रखता हुआ जो शब्दानुवादमें प्रकट नहीं, की जा सकती यह 'अर्य' शब्द उन्हें सूचित करता है जो उच्च अभीप्साके लिये उद्यत होते हैं और भद्र तथा आनंदको पानेके लिये एक हवि:प्रदानके रूपमें महान् यत्न करते हैं ।
दूसरी ऋचामें हमारे लिये इन्द्रके मार्ग-दर्शनकी आवश्यकता स्पष्ट रूपसे पुष्ट कर दी गयी है । वायुको उन सब नकारोंको जो अनभिव्यक्तकी अभिव्यक्तिके विरोधमें हो सकते हैं परे हटाते हुए आना है, निर्युवाणो अशस्ती: । 'अशस्ती:'का शाब्दिक अर्थ है 'अभिव्यक्तियोंका न होना' और इससे प्रकट होता है वृत्र जैसी आच्छादक शक्तियों द्वारा उस प्रकाश और शक्तिका निरोध कर लिया जाना जो देवोंके प्रभाव और शब्दके कर्तृत्व द्वारा अभिव्यक्तिमें आनेको तैयार पड़े हैं प्रकट होनेकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । शब्द है वह शक्ति जो अभिव्यक्त करती है, शस्त्रम्, गी:, वच: । परंतु इस बातकी आवश्यकता होती है कि दिव्य शक्तियों द्वारा शब्दकी रक्षा की जाय और इसे इसका उचित कर्तृत्व प्रदान किया जाय । यह कार्य वायुको करना है; उसे नकारोंकी, बाधाओंकी अनभिव्यक्तिकी सब शक्तियोंको बाहर निकाल देना है । यह कार्य करनेके लिये 'नियुत्' घोड़ों सहित और इन्द्रको सारथिरूपमें लेकर, नियुत्वान् इन्द्रसारथी:, उसे अवश्यमेव पहुँचना है । इन्द्र, वायु और सूर्य-तीनोंके घोड़ोंके अपने-अपने यथोचित नाम हैं । इन्द्रके घोड़े हैं हरि या बभ्रु अर्थात् अरुणवर्णके या भूरे; सूर्यके हरित, जिससे अपेक्षाकृत अघिक गहरा, पूर्ण और घना चमकीलापन सूचित होता है; वायुके नियुत् हैं अर्थात् नियुक्त होनेवाले घोड़े क्योंकि वे उन क्रियावान् गतियोंके द्योतक हैं जो शक्तिको उसकी क्रियामें नियुक्त कर देती हैं । यद्यपि हैं तो वे वायुके घोड़े, पर हाँके जाने हैं इन्द्रसे अर्थात् वातमय और प्राणमय शक्तिके देवकी गतियाँ मनके देवके द्वारा परिचालित होनी हैं । _____________ 1. यदि हम 'विपो न रायो अर्य:' इस वाक्यांशका यह अनुवाद करें कि ''आनंदका अभिव्यन्जक जो अर्य (इन्द्र) है उसकी तरह'' तु भी । ३९८ तीसरी ऋचा1 पहले-पहल कुछ ऐंसी लगती है कि इसमें एक असंबद्ध-सा विचार चल पड़ा; इसमे अंधकारावृत और सब रूपोंको अपने अंदर रखने-वाले द्यावापूथिवीका वर्णन हैं जो, अपने प्रयत्नमें, इन्द्र-चालित रथपर बैठे वायुकी गतियोंके आज्ञानुवर्ती होते हैं या उनका अनुसरण करते हैं । उनका यहाँ नामोल्लेख न करके इस रूपमें वर्णन किया गया है कि कोई दो हैं जो काले या अंधकारावृत हैं और वसु या ऐश्वर्यको अपने अंदर रखे हुए, वसुधिती, हैं । परंतु 'वसुधिती' शब्दके प्रयोगसे पर्याप्त स्पष्ट तौर पर यह पता चल जाता है कि यह पृथिवी (वसुधा) है और क्योंकि द्विवचनांत प्रयोग है इसलिये उसके साथ उसका सहचर द्यौ भी आ जाता है । यह हमें ध्यानमें ले आना चाहिये कि यहां जिनका उल्लेख है वे पिता द्यौ और माता पृथिवी नहीं हैं, परंतु दो बहिनें, रोदसी, द्यौ व पृथिवीके स्त्री-रूप, हैं जो मानसिक तथा भौतिक चेतनाकी सामान्य शक्तियोंकी प्रतीक हैं । उनकी अंधकारमय अवस्थाएँ--मानसिक और भौतिक इन दो सीमाओंके बीचकी अधकारावृत चेतनाकी अवस्थाएँ--ही वातमय क्रिया-शीलताकी प्रसन्न गति द्वारा वायुकी गतिके अनुसार या वायुके नियंत्रणके नीचे संघर्ष करने लगती हैं और अपने छिपे पड़े रूपोंको व्यक्त करने लग पड़ती हैं; क्योंकि सभी रूप उनके अंदर छिपे पड़े हैं और अवश्य ही उन्हें उनको व्यक्त करनेके लिये बाध्य किया जाना चाहिये । इस प्रकार हमें स्पष्ट हो जाता है कि यह ऋचा अपनी पूर्ववर्ती दो ऋचाओंके भावको पूर्ण करनेवाली ही है । क्योंकि सदा ही जब वेदको समुचित रूपमें समझ लिया जाता है तो इसकी ऋचाएँ एक गंभीर युक्तियुक्त संगति और अर्थपूर्ण क्रमके साथ विचारको खोलती दिखायी देती हैं ।
अवशिष्ट दो ऋचाएँ उस परिणामका वर्णन करती हैं जो द्यौ और पृथिवीकी इस क्रियासे उत्पन्न होता है और साथ ही जब वायुका रथ द्रुत वेगसे आनंदकी ओर दौड़ता है उस समयकी वायुकी गतिपर जो वे (द्यावापृथिवी) छिपे पड़े रूपोंको और अनभिव्यक्त शक्तियोंको व्यक्त करने लग पड़ते हैं उससे भी जनित होता है । सर्वप्रथम उसके घोड़ोंको अपनी सामान्यतया पूर्ण सरल संख्याको पा लेना है । ''निन्यानवे घोड़े, जो मन द्वारा जोते जाते हैं, नियुक्त किये जायँ और वे तुझे बहन करें2 । '' बार-बार आनेवाली निन्यानवे, सौ और हजारकी संख्याएँ वेदमें प्रतीकात्म ___________ 1. अनु कृष्णे वसुधिती येमाते विश्वपेशसा । 2. वहन्तु त्वा मनोयुजो युक्तासो नवतिर्नव । ३९९ अर्थ रखती हैं, जिसे ठीक-ठीक खोल सकना बड़ा कठिन हैं । रहस्य संभवत: यह हैं कि सातकी रहस्यपूर्ण संख्याको उसीसे गुणा करके जो उनचासकी संख्या आती है उसे दुगना करके और उसके शुरूमें और अंतमें एककी संख्या जोड़नेसे सौकी संख्या बनती है, 1 + 49+49+1=100 । सात है अभिव्यक्त प्रकृतिके मुख्य तत्त्वोंकी संख्या, दिव्य चेतनाके सात रूप जो विश्व-लीलामे कार्य करते हैं । प्रत्येकको पृथक्-पृथक् लिया जाय तो वह अपने अंदर बाकी छहोंको रखता हैं; इस प्रकार पूर्ण संख्या 7 x 7 अर्थात् 49 हो जाती है, और इसमें वह ऊपरकी एक की संख्या और जोड़ दी जाती है जिसमेंसे सब कुछ विकसित होता है, तो सब मिलाकर पचासका प्रमाण (scale) हो जाता है जो सक्रिय चेतनाका पूर्ण पैमाना बनता है । पर साथ ही आरोह और अवरोहकी शृंखलासे इस (एकके साथ जुड़नेवाली 49 की संख्या) का द्विगुणीकरण भी होता है, अवरोह देवोंका, आरोह मनुष्यका । इससे निन्यानवे ( 1 49+9) की संख्या बनती है जो वेदमें विविध रूपमें घोड़ों, नगरों, नदियोंके लिये, प्रत्येक स्थितिमें एक जुदा किंतु सजातीय प्रतीकवादको लिये हुए, प्रयुक्त की गयी है । यदि हम नीचे एककी उस अंधकारावृत संख्याको, जिसके अंदर सब कुछ अवरोहण करके आता है, ऊपर उस प्रकाशमय संख्याके साथ, जिसकी तरफ सब आरोहण करके जाता है, और जोड़ दें तो एक सौका पूरा प्रमाण (scale) बन जाता है ।
इसलिये बादकी गतिके परिणामस्वरूप जिस शक्तिको उत्पन्न होना है वह चेतनाकी एक संभिश्र: शक्ति है; वह है उस मानसिक क्रियाकी पूर्णतम गतिका उद्धव हो जाना, जो अभी मनुष्यके अंदर केवल निगूढ़ और सम्भाव्य अवस्थामें है,-मन द्वारा जोते जानेवाले निन्यानवे घोड़ोंका निथुक्त किया जाना । और अगली ऋचामें ऊपरवाली अंतिम एककी संख्या जोड़ दी गयी है । वहाँ हम सौ घोड़े देखते हैं, और क्योंकि क्रिया अब पूर्ण प्रकाशमान मनसत्ताकी हो गयी है इसलिये ये घोड़े यद्यपि अब भी वायु और इन्द्रको वहन करते हैं, तथापि अब ये केवल 'नियुत्' नहीं रहे किंतु 'हरि' हो गये हैं, जो इन्द्रके चमकदार घोड़ोंका रंग है । ''ओ वायु, तू सौ चमकीले घोड़ोंको नियुक्त कर, जो पोष्य हैं, जिन्हें बढ़ाया जाना है1 ।''
पर 'पोष्य, क्यों हैं, बढ़ाये जाने योग्य क्यों हैं ? क्योंकि सौंकी संखया तो विविधतया संयुक्त गतियोंकी सरल पूर्णताको ही सूचित करती हैं, उनकी ____________ 1. वायो शतं हरीणां युवस्व पोष्याणामू । ४०० पूरी सम्मिश्ररूपताको नहीं । सौमेंसे प्रत्येकको दससे गुणित किया जा सकता हैं; सब अपने निज-निज प्रकारसे वर्धित या पोषित किये जा सकते हैं; क्योंकि 'पोष्याणाम्' शब्दसे जो वृद्धि सूचित होती हैं वह इसी प्रकारकी है । इसलिये ऋषि कहता है कि या तो तू सौकी सरल पूर्णताके साथ आ जो बादमें बढकर दशगुणित सौ अर्थात् हजारकी पूर्ण सम्मिश्ररूपताको प्राप्त हो जायगी, या यदि तेरी इच्छा हो तो एकदम हजारके साथ आ जा और अपनी गतिको इसकी संपूर्ण संभावित शक्तिके पूरे वेगमें आ जाने दे1 । जिसे यह चाह रहा है वह है पूर्णतः वैविध्ययुक्त सबको अपनी परिधिमें ले लेनेवाला, सबको शक्ति प्रदान करनेवाला मानसिक प्रकाश जो सत्ता, शक्ति, आनन्द, ज्ञान, मनःसत्ता, प्राणशक्ति, भौतिक क्रिया-शीलताकी अपनी पूर्ण उन्नतिसे युक्त है । क्योंकि यदि यह प्राप्त हो जाय तो अवचेतन बाध्य हो जाता है कि वह पूर्णता-प्राप्त मनकी इच्छापर अपने सब छिपे पड़े संभाव्य रूपोंको मुक्त कर देवे ताकि पूर्णताप्राप्त जीवन (प्रगण) - की समृद्ध और प्रचुरतापूर्ण गति हो सके । ___________ 1. उत था ते सहस्त्रिणो रथ आ यातु पाजसा | ४०१
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